मंगलवार, 10 जनवरी 2012

उत्तिष्ठत् जाग्रत प्राप्यवरानिबोधत

कठोपनिषद का यह मन्त्र आज कुछ अधिक सार्थक लग रहा है। क्योंकि भारतीय इतिहास के किसी भी कालखण्ड में उठ खडे होने की इतनी आवश्यकता भी कभी नहीं रही है। मात्र खडे होने तक सीमित होने का यह वक्त नहीं है। अपितु आज आवश्यकता है प्राप्त करने तक न रुकने की। न रुकने का मतलब है कि अहर्निश यत्न करते रहना है। यत्न के पथ को जिस प्रकार से ऋषि दुधारी तलवार की तरह दुर्गम बताते है उसी तरह से आज का कालखण्ड भी सत्य और न्याय के पथ पर चलने वाले यत्न के लिये दुर्गम है। वैदिक काल का एक बेटा अपने पिता की कर्मकाण्डीय बेईमानी के विरुद्ध प्रतिरोध का स्वर खडा करता है और स्वर्ग से भी महान दुर्लभ अमरत्व को मानवजाति के कल्याण के लिये लेकर प्रस्तुत हो जाता है। नयी जीवनदृष्टि और नये मूल्यों के सृजन का युग शुरु होता है। आज पुनः वह स्थिति है—पर इस काल का नचिकेता विभ्रम में है। यम से लडने का उसका साहस चुका नही तो है पर अपने पितरों से विद्रोह को लेकर वह अति संकोच में है। यही युवा का मोह है, वह खुद के जीवन को लेकर लालची हो गया है ऐसा तो मुझे दिखता नही। परन्तु अपने बन्धु बान्धव रिस्ते आते के मोह में संकोच का शिकार है। यह अपने परिवेश अपनी भाषा का संकोच तो है ही, सर्वाधिक है जीवन के उन क्षणो को कठोरता से अस्वीकृत करने का जब लोकतन्त्रात्मक व्यवस्था में उसको वैचारिकी की प्रतिबद्धता का घूँट पिलाया जाता है। इस संकोच से मुक्ति का उपक्रम करने की जिम्मेदारी युवा की ही है।
यह आजके युग के लिये नव वेदान्त ह। याद रहे उन्नीसवी शताबदी में स्वामी विवेकानन्द ने कहा था कि आने वाले पचास वर्षों तक व्यर्थ के देवी देवतओं की उपासना छोड कर केवल भारत माता की उपासना करनी चाहिये। यही एकमात्र जाग्रत देवी है औअर हमारा राष्ट्र एकमात्र उपासस्य इसका फल भारत को आजादी के रुप में मिला। आज पुनः परिस्थिति कठिन है, आत्मसम्मान के बोध के अभाव, आत्यन्तिक सुख की विस्मृति से उत्पन्न ऐन्द्रिक जीवन विधि और सुख की भौतिक व्यवस्था ने मनुष्य को साधना पथ से विपथ कर तकनीक-केन्द्रित कर दिया है। परिणामतः आज के साधारण मनुष्य ने आत्मत्याग और तप के नित्य आनन्दवर्धक पथ को छोड कर, सहज ही प्रस्तुत आयातित जीवन प्रणाली को अंगीकार कर लिया है। जिसने उसकी प्रतिरोधि शक्ति को समाप्त कर दिया है और तात्कालिक सुख की तकनीक-प्रस्तुत पद्धति को अपना जीवन दर्शन बना लिया है।

इसका स्वाभाविक परिणाम है समाज जीवन के सभी क्षेत्रों के असह्य भ्रष्टाचार। इस असह्य भ्रष्टाचार के खात्मे के बिना भारत का भला संभव नहीं है। भारत का भला इसलिये जरुरी है कि भारत नष्ट होता है तो, विश्व को प्रकाश दिखा सकने जीवन प्रणाली नष्ट हो जायेगी। भौतिक विकास और भौतिक सुख की तकनीकजनित जीवनप्रणाली ने एक मनुष्य़ को दुसरे मनुष्य के शोषक के रुप में खडा कर दिया है। परिणामतः मनुष्य मात्र के कल्याण के विचार, जिसे सर्वे भवन्तु सुखिनः के रुप में अभिव्यक्त किया गया है, आज के कलखण्ड में निरर्थक सिद्ध हो रहे हैं। ऐसे में हमें सबके कल्याण का विचार पुनः प्रतिस्थापित करना होगा पर यह किसी एक आन्दोलन से संभव न होगा किसी कानून से भी इसका समाधान नहीं है। कोई लोकपाल दिक्पाल भी इसको सर्वाभिमुखी जीवन की प्रणाली के रुप में प्रतिष्ठित नही कर सकता है। ये सब इस के साधन हैं समवेत रुप से साधन हैं। पर यह आनदोलन एक कार्यक्रम नही है, सतत् चलने वाली साधना है। इसलिये सार्वकालिक आन्दोलन के रुप में इसकी प्रतिष्ठा तो हमें करनी होगी। अभी भ्रष्टाचार के विरुद्ध जो आक्रोश है, वह मात्र सत्ता प्रतिष्ठान के भ्रष्टाचार के विरुद्ध है। इसे व्यक्ति के स्तर पर कुटुम्ब के स्तर पर स्थापित करने का जोशीला प्रयास करना तो सोचा भी नहीं गया है।

नचिकेता की याद इसीलिये महत्वपूर्ण है कि नचिकेता मे निर्वैयक्तिक प्रेरणा है। वह पिता के शाप से दुखी न हो कर सगुण आक्रोश से आप्लावित हो जाता है। लक्ष्य की सिद्धि के बाद तो यह आक्रोश रचनाधर्मी औदार्य से आप्लावित को जाता है। अभी जो आन्दोलन समाज में प्रचारित है इसमें युवा नहीं है ऐसा तो कोई स्वप्न में भी नहीं सोच सकता है। निसन्देह यह य्वा शक्ति काही आन्दोलन है। आन्दोलित युवा में दुख है, आक्रोश है परिवर्तन की इच्छा शक्ति भी है, परन्तु एक बडा अभाव सर्वत्र दृष्टि गोचर हो रहा है, वह निर्वैयक्तिकता का अभाव तथा रचनाधर्मी औदार्य की कमी। यह दोनो ही युद्ध के मानस से नही निर्मित किया जा सकता है। अपितु इसके तप की आवश्यकता है सृजनात्मक कल्पना की जरुरत है। वस्तुतः मूल्यों का संकट सृजनात्मक कल्पना के अभाव का संकट है। जब सृजनात्मक कल्पना अवकाश पर होती है तो मूल्यों का क्षरण तो अवश्यंभावी है। अस्मिता का पहचान का संकट भी आपतित होता है। यह सब कुछ एक नये विमर्श के साथ ही पूर्णता को प्राप्त होगा। बूढी गाये दान करने के पाप से बचाने के लिये नचिकेता विद्रोह कर बैठा था अपने पिता से, पर उसने पाप के खिलाफ ही बगावत नहीं की, वास्तविक जीवन मूल्यो को स्थापित करने के लिये साक्षात मृत्यु के देवता से भी वाद विवाद किया। यह वैदिक विद्रोह तथा विमर्श आज भी प्रासंगिक है। क्योंकि जड और भ्रष्ट व्यवस्था से विद्रोह करना ही युवा स्वभाव है। सामने चाहे जैसी भी शक्ति हो, युवा जब भी सपने सजाता है परिवर्तन का व्रत लेता है, नये युग का सृजन होता ही है।
हां यह पथ कठिन है! सब अपना जीवन सगुण सकारात्मक परिवर्तन के लिये आहुति दें यह न तो संभव है न तो अपेक्षित ही है। इस काल की अपेक्षा तो मात्र इतनी है कि युवा अपने अन्दर सकारात्मक भाव भर कर स्वयं को समकालीन युग धर्म से अलग खडा करे। शाश्वत मूल्यों को स्वीकर करता हुआ युवा कुछ नया कर दिखाये, नव नवल परिवर्तन का वाहक बने।इसके लिये भ्रष्टाचार के दानव की छाया अपने और अपने कुटुम्ब पर न पडने देने का उपक्रम करना होगा। यही युवा कृष्ण ने किया था। सबसे पहले गोकुल के अपने बांधवों और स्वयं को दानवी आतंक से मुक्त किया उसके बाद कूद गये वे वास्तविक परिवर्तन के लिये दानवी सत्ता के केन्द्र पर। यही रणनीति भ्रष्टाचार के दानव से लडने की सार्थक नीति है। तो क्षुरस्य धारा निशितादुरत्या दुर्गम पथ पर आगे बढने के लिये इसका संज्ञान और संकल्प दोनो ही आवश्यक है।

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